नानाजी की कहानियां

Posted by Remya Padmadas on February 21, 2017

शाम के ६ बजे थे।  छत पर बड़ी हलचल थी।  दो बच्चे छत पर पानी डाल रहे थे, दो चारपाईयां लगा रहे थे, कुछ बिस्तर इक्कट्ठा कर रहे थे और साथ ही ज़ोर ज़ोर से बातें भी कर रहे थे।  

सभी बच्चों ने फटाफट अपना खाना खाया और आ धमके छत पर अपने पसंदीदा काम के लिए। सबको अँधेरा होने का इंतज़ार था।  

अँधेरा होते ही नाना जी छत पर आये, एक चारपाई पर बैठ गए और सारे बच्चों ने उन्हें घेर लिया।  फिर शुरू हुआ फरमाइशी प्रोग्राम! "नानाजी, बब्बन हजाम!", "नानाजी, राक्षस भाक्षस!", "नानाजी, बूढी अम्मा!"

ये सब थी कहानियां! और ऐसी ही ना जाने कितनी कहानियों का पिटारा था नानाजी के पास! हम दोनों भी उन्हीं बच्चों में शामिल थे। गर्मी के दिनों का वह सबसे अच्छा समय होता था।  उन कहानियों में ऐसे ऐसे किरदार होते थे जो शायद जीवन में तो कभी न मिलें।  एक लडडू के पीछे भागती बूढी अम्मा, एक सुरीली ढोलक में लुढ़कती लड़की,  एक बर्तन तक खा जाने वाला पेटू और भी जाने कौन कौन !

इन रंग बिरंगे किरदारों ने हम सब बच्चों का जीवन भी रंगीन कर दिया था।  नानाजी की कहानियां बड़ी ही मज़ेदार थी, उनमें कभी भी हमें सीख देने की कोशिश नहीं की जाती थी।  शायद इसीलिए हम सब बड़े ही चस्के ले कर उन्हें सुनते थे। और नानाजी का सुनाने का अंदाज़....ढोलक लुढ़क रही है तो उसके लुढ़कने की आवाज़, राक्षस है तो उसकी डरावनी आवाज़, बूढ़ी अम्मा हैं तो उनकी वो बूढ़ी, कांपती हुई सी आवाज़.....ये सभी बातें थीं जो बच्चे तो बच्चे, बड़ों को भी अपनी ओर खींच लेती थीं। नानाजी के चारों ओर घेरा बड़ा होता जाता था। घर के सब लोग, अपना-अपना काम छोड़ कर, उनके आस-पास इकट्ठा हो जाते थे। और तो और, आस-पड़ोस के बच्चे और बड़े भी खिंचे चले आते थे। सबसे ज़्यादा मज़ा आता था उनके वो देसी भाषा के शब्द सुनने में! ऐसा नहीं कि वो पढ़े-लिखे नहीं थे। वे खुद इंजीनियर थे, हिंदी, अंग्रेज़ी और उर्दू में माहिर, पर वो बच्चों के साथ बच्चे बन कर कहानी सुनाते थे! हम अंग्रेज़ी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों ने ये शब्द सिर्फ इन कहानियों में ही पहली बार सुने और सीखे। फिर धीरे धीरे हमारा ध्यान अपने आस पास बोले जाने वाले ऐसे और कई शब्दों पर जाने लगा। हम उन शब्दों को अपनी भाषा का हिस्सा बनाने की कोशिश भी करने लगे। नानाजी की कहानियों ने न हमें सिर्फ कहानी का, बल्कि भाषा का लुत्फ़ लेना भी सिखाया।  

     

धीरे धीरे हम सब बड़े हो गए, कहानियां उसी छत पर रह गयीं और हम सब देश-विदेश में फैल गए। लेकिन वो कहानियां लौट आईं, वे कहीं गई ही नहीं थीं। पता है वो कब वापस हमारे जीवन में आ गईं.....जब हमारे बच्चों ने कहानियां सुनने की ज़िद की और हमने जाने-अनजाने उन्हीं कहानियों को दोहराना शुरु कर दिया! एक-एक करके वही किरदार फिर से अपना रंग बिखेरने लगे। पता नहीं ऐसा क्या था उन कहानियों में कि पीढी दर पीढी, हर एक बच्चे को सुनने में मज़ा आता था। और सबसे मज़े की बात तो यह थी कि अब गर्मी की छुट्टियों में हमारे बच्चे भी हमारे साथ बैठ कर नानाजी से कहानियां सुनने को बेताब रहते थे। और वही सुनी हुई कहानियां, हर बार सुनने में नई लगती थीं।

वो कहानियां हमारी आदत बन गई थीं। नानाजी के चले जाने के बाद अहसास हुआ कि हमने क्या खो दिया है। बस, एक दिन अचानक ये ख्याल आया कि नानाजी को सबसे अर्थपूर्ण श्रद्धांजलि होगी - उनकी कहानियों को सहेज कर रखना। हम चाहते थे की ज़्यादा से ज़्यादा बच्चे इन कहानियों का मज़ा ले सकें। वो भी उन अलग अलग दुनियाओं की सैर कर सकें जिनकी हमने की, अपने नानाजी के साथ। और हमें ‘स्टोरीवीवर’ के ज़रिये अपने मन की बात दुनिया भर के बच्चों तक पहुंचाने का रास्ता भी मिल गया। यह तो सिर्फ हम जानते हैं कि जो बात उन्हें सुनने में थी, लिखने-पढ़ने में वो मज़ा नहीं, पर हां, इस बात की खुशी है कि हम उन्हें अमर बनाने का प्रयास कर रहे हैं।

और सबसे खास बात जो बड़े होने पर समझ आई, कि भले ही वो कहानियां उस समय सिर्फ मज़े के लिये सुनते थे, पर कहीं ना कहीं वो अपना असर दिखा रही थीं, हमें दुनिया की समझ दे रही थीं, नए, या सच कहें तो हिंदी के पुराने शब्दों से, हमारा परिचय करा रही थीं, सही-गलत का भेद बता रही थीं, हमारे चरित्र को एक आकार दे रही थीं। आजकल हम बहुत सोच-समझ कर बच्चों को उपदेशात्मक कहानियां सुनाते हैं, बचपन में ही उन्हें हर बात समझा देना चाहते हैं। किंतु, मज़ेदार तरीके से सुनाई गई वो कहानियां इस काम को ज़्यादा बखूबी निभा गईं। उनमें कितनी ही बातें ऐसी थीं जिनकी गहराई हमें तब समझ आई जब हमने अपने बच्चों को वो कहानियां सुनाईं। बच्चों का कोमल मन सुनी हुई बातों को कैसे ग्रहण करता है, यह जादू भी समझ आ गया।   

इन कहानियों ने एक और बड़ा काम किया है - पूरे परिवार को जोड़ने का। आज भी जब हम लोग मिलते हैं, मामा-मामियां, उनके बच्चे, सबके बच्चों के बच्चे, तो एक ही बात सबसे ज़्यादा याद करते हैं, वो है नानाजी की कहानियां....और फिर शुरु हो जाता है सबका अपने-अपने अंदाज़ में उन्हें दोहराने का सिलसिला। हम सब फिर से बचपन के उन्हीं शरारती दिनों में लौट जाते हैं।

शायद इतनी बातों के बाद, आप सब के मन में यह विचार आया हो कि उनकी कहानियाँ तो सुनें। अर्चना और शिल्पी की सुनहरी यादों से बुनी यह कहानियाँ आप यहाँ पढ़ सकते हैं।

क्या आपका भी जी ललचा रहा है नानाजी की एक तरोताज़ा कहानी सुनने को? तो, लीजिये, आपकी इच्छा पूरी हुई। हमारे नानाजी की एक और कहानी...

कुछ तो है!

नन्हे मियां को नौकरी की तलाश में अपने घर से निकले कई दिन हो गये थे। अचानक एक दिन नाई की दुकान देख कर उन्हें याद आया कि बाल तो कब से नहीं कटवाये। बस, तो पहुंच गये नाई के पास और कह दिया कि, “बाल काट दो”। पर तभी उनका माथा ठनका..... “अरे, बाप रे! पैसे तो हैं नहीं!” उन्होनें नाई से कहा कि, “भैया, मेरे पास तो पैसे ही नहीं हैं, मैं तुम्हें क्या दूंगा?” नाई ने नन्हें मियां को गौर से देखा, फिर ज़रा सोच कर कहा, “पैसे ना सही, कुछ तो होगा, वही दे देना”। नन्हें मियां ने सोचा थैले में मिठाई है, वही दे दूंगा; उन्होनें कहा, “ठीक है भैया, कुछ है मेरे पास तुम्हें देने के लिये, चलो बाल काट दो”।

अब आई देने की बारी। नन्हें मियां ने मिठाई दी तो नाई ने कहा, “यह तो मिठाई है, पर आपने तो कहा था कि ‘कुछ’ देंगे”। नन्हें मियां चकरा गये। बहुत समझाने पर भी नाई अड़ा रहा कि मुझे तो ‘कुछ’ चाहिये। आखिरकार, वह बोला कि, “कुछ नहीं है तो अपनी सोने की अंगूठी दे दो”। नन्हें मियां ने अपनी सोने की अंगूठी उसे दी और कहा कि, “तुम यह रखो, एक-दो दिन में मैं ‘कुछ’ ले कर आउंगा और अपनी अंगूठी ले जाऊंगा”। नाई ने खुशी-खुशी अंगूठी रख ली और कह दिया कि, “अगर दो दिन में ‘कुछ’ नहीं लाये तो अंगूठी मेरी हो जायेगी”।

परेशान से नन्हें मियां, सोच में डूबे जा रहे थे कि, एक बच्चे की आवाज़ उनके कानों में पड़ी – “चचा बड़े की बात निराली, उनपे हर ताले की ताली; कोई मुसीबत आन पड़े, झट से हल दें चचा बड़े”। उन्होंने बच्चे से पूछा, “कौन हैं ये चचा बड़े?” बच्चे ने कहा, “चचा बड़े बहुत होशियार हैं, उनके पास हर मुसीबत का हल होता है”। नन्हें मियां को लगा कि शायद उनकी परेशानी का हल भी मिल जाये। उन्होंने बच्चे से कहा, “मुझे चचा बड़े के पास ले चलो, मैं तुम्हें बहुत सारी मिठाई दूंगा”। बच्चे ने कहा, “तो चलो फिर!”

चचा बड़े के घर पहुंचकर बच्चे ने कहा, “लाओ, बहुत सारी मिठाई दो”। नन्हें मियां ने थैले में से मिठाई निकाली और दे दी। बच्चे ने तुनक कर कहा, “यह तो थोड़ी सी है, बहुत सारी मिठाई दो”। अब तो नन्हें मियां फंस गये। तभी चचा बड़े बाहर आये। उन्होनें पूरी बात सुनी और नन्हें मियां को, मिठाई ले कर, अंदर आने को कहा। थोड़ी देर बाद नन्हें मियां ने आवाज़ लगाई, “आओ, अंदर आ कर मिठाई ले लो”। बच्चा अंदर गया तो देखा कि दो डिब्बों में मिठाई रखी है, एक में कम, एक में ज़्यादा। नन्हें मियां ने कहा, जो चाहो ले लो। बच्चे ने फटाक से ज़्यादा मिठाई वाला डिब्बा उठा लिया, “इसमें बहुत सारी मिठाई है, मैं यही लूंगा”। नन्हें मियां का मन गा उठा, “चचा बड़े की बात निराली, उनपे हर ताले की ताली; कोई मुसीबत आन पड़े, झट से हल दें चचा बड़े”।

अब नन्हें मियां ने चचा बड़े को नाई का किस्सा सुनाया। चचा बड़े ने सारी बात समझ कर नन्हें मियां को कुछ समझाया। नन्हें मिया एक लोटा ले कर आये, उसमें एक मेंढक को डाल कर, लोटे को ऊपर से ढक दिया। अब वे पहुंचे नाई के पास और लोटा दे कर कहा, “यह लो”। जैसे ही नाई ने लोटा पकड़ा, अंदर मेंढ़क ज़ोर से उछला। नाई घबरा कर बोला, “इसमें तो कुछ है!” नन्हें मियां तुरंत बोले, “तो बस, अपना ’कुछ’ निकाल लो, और मेरा लोटा और अंगूठी, दोनों वापस कर दो”। अब तो नाई अपने ही जाल में फंस चुका था। उसे अंगूठी वापिस करनी ही पड़ी।

नन्हें मियां ने फौरन जा कर चचा बड़े का धन्यवाद किया और उन्हीं के यहां नौकरी करने लगा। बस, जब देखो एक ही बात दोहराता था, “चचा बड़े की बात निराली, उनपे हर ताले की ताली; कोई मुसीबत आन पड़े, झट से हल दें चचा बड़े”।  

Our maternal grandfather, Shri Jai Bhagawan Gupta, was an engineer who had graduated from the prestigious Roorkee University, which was then called Thomson College, managed by the British. He served in the PWD for almost 45 years. He was an expert in Hindi, English and Urdu languages, and also an active sportsperson. In spite of being under heavy British influence for such a long time, he chose to settle down in his native town, after retirement. He never lost touch with his roots and passed on the richness and warmth of our language and culture through his endless witty stories. We just recreated his stories to continue what he had started. It is indeed heartwarming to see our children sometimes utter those typical Hindi words in the midst of the present day slangs and SMS lingo!

   - Archana Agrawal and Shilpy Gupta


 

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The Rosetta Foundation and StoryWeaver

Posted by Remya Padmadas on February 20, 2017

 


The Rosetta Foundation was launched on September 21, 2009, at the Action for Global Information Sharing (AGIS) ’09 Conference in Limerick, Ireland, by the President of the University of Limerick, Professor Don Barry. Its primary purpose is to make information available to individuals all over the world irrespective of their social status, linguistic or cultural background, and geographical location. The organisation's name is based on the Rosetta Stone. In 196 BC, the text of the Rosetta Stone was carved in Egyptian and Greek using three scripts - Hieroglyphic, Demotic and Greek. The Rosetta Stone was written in these scripts to make sure that everyone in the world at the time could understand it. The Stone was discovered in 1799 in a small Egyptian village called Rosetta, which gave the stone its name. We spoke to Stefania Tringali, Production Coordinator about the foundation's work work and their collaboration with StoryWeaver.

What is your mission?

We work to relieve poverty, support healthcare, develop education and promote justice through equal access to information and knowledge across the languages of the world. Like the Rosetta Stone, the aim of The Rosetta Foundation is to provide equal access to information to as many people as possible.

Why is translation / making the world more open and inclusive so important?

We believe access to information in your own language is a fundamental and universal human right – one that The Rosetta Foundation is committed to preserve and protect.The multilingual information we facilitate makes a real difference in people’s lives. But the reality is that nearly three-quarters of the world’s population still has no access to vital information in their own language. The Rosetta Foundation will continue working hard on their behalf in 2017 and beyond, because access to information in your own language is a fundamental human right.

How are StoryWeaver and The Rosetta Foundation's mission and purpose aligned?

StoryWeaver and The Rosetta Foundation have worked together on six translation projects for a children’s book series into seven languages. We believe that we have a lot in common in our mission and vision. Both of our organisations work for equal access to the intellectual resources and believe that languages shouldn’t be an obstacle in this process. It was a great pleasure for us to work together and cooperate for the “Freedom to Read” campaign: it was a great chance for our volunteers to use their skills to promote equality and empower children all over the world.

The Rosetta Foundation logo is by Source, fair use: https://en.wikipedia.org/w/index.php?curid=27129018)

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Helping teach Jèrriais to a new generation

Posted by Remya Padmadas on February 20, 2017

StoryWeaver is proud of the small role it plays in the preservation of languages. Our collaborations with language organisations, educators and NGOs has helped in creating joyful reading material in languages such as Konkani, Tibetan and Kora and Santali, thus ensuring that they are passed on to the next generation of learners.  The ‘Freedom to Read’ campaign was our effort to make many more stories available in languages that are underserved and underrepresented in the mainstream.

Languages like Jèrriais. Jèrriais is a minority, endangered language, spoken in the island of Jersey, off the coast of France. To pull it out of this status and keep it alive, various schools in Jersey have started teaching Jèrriais and organisations have been made to protect the language by promoting literature, music, and any other sources of the language. Anthony Scott Warren, one of the few teachers of the language, asked us to add Jèrriais to StoryWeaver. 

"In the 1990s it was realised by the States of Jersey government, that the number of Jèrriais speakers was in serious decline and that as there was no longer inter-generational transfer of the language, a programme to teach it needed to be set up.  There were no qualified Jèrriais teachers working in the Education Department, so the States outsourced the programme to Le Don Balleine, a will trust who set up L’Office du Jèrriais to run lessons in primary schools from the start of 1999." shared Anthony.

Jèrriais lessons began in secondary schools in 2001 and were optional and generally outside normal school hours. In some schools,  children could attend Jèrriais instead of assembly. "I was initially the only employee, but later the team expanded to 2.8 equivalent full-time teachers.  We currently are training two new teachers to take over when I and one other teacher retire." says Anthony who is hoping (subject to funding from the States of Jersey) to increase the teaching provision to 4 teachers and to run lessons in grades 4 to 6 (ages 8 – 11) in curriculum time.  "We also plan to increase the provision in secondary schools and to develop an immersion programme in nurseries and Foundation stage."

Anthony plans to use the stories  he is translating on StoryWeaver in his lessons, which are generally for beginners.  "I’ll be making laminated flipbooks to take to the classrooms.  We would ideally like to add the stories to our new LearnJèrriais website which is intended to go live later this year.  We are also planning to have a Story and Rhyme Time feature at the Jersey Library each week, and these stories will fit in very well."

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Currently  40 children are learning Jèrriais, but Anthony hopes to increase to at least 200 children per year in the next five years. We look forward to seeing more stories in Jèrriais on StoryWeaver and hearing about the wonderful work Anthony and his colleagues are doing!

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