आमों के साथ-साथ पिछली गर्मी की छुट्टियां और भी कुछ नया लेकर आईं थीं

Posted by Remya Padmadas on May 09, 2016

Rajesh Khar, Editor (Pratham Books), writes about the journey of a special set of books created last year. 

उत्तरप्रदेश के एक गाँव में एक स्कूल में बहुत सारे बच्चे एक कहानी बुनने में मग्न थे। वे कई सारे रंग बिरंगे चित्रों के इर्दगिर्द बैठे थे और इस कदर व्यस्त थे कि उन्हें शिक्षिका के कक्षा में होने का आभास भी नहीं हो रहा था। आखिरकार कुछ देर बाद एक बच्ची ने अपनी कहानी बुन ही ली और ख़ुशी से उछलने लगी। थोड़ी देर में एक एक करके बाकी सब ने भी अपनी कहानियाँ बना लीं। अब शिक्षिका का ध्यान आया और सब के सब उनकी और दौड़े। दीदी की आँखें चमक उठीं। इतने सारे बच्चों ने इतनी सारी कहानियाँ जो बुन ली थीं। उनको बड़ा अच्छा लग रहा था कि कहाँ तो ये बच्चे लिखने के नाम परकतराते थे और दो-चार लाईनें लिख कर हाथ खड़े देते थे, वहीं आज बिना किसी चूं चां के उन्होंने कहानी लिख ली थी। दीदी ने वो सारी कहानियाँ पढ़ीं, उनमें गलतियाँ तो थीं और कुछ में तो वाक्यों के बीच विराम चिन्ह भी नहीं थे लेकिन ये सभी कहानियाँ उन बच्चों की अपनी कहानियाँ थीं। सब के अपने शब्द, अपने वाक्य, अपने अनुभव और अपने संसार थे। पहली बार इसका अहसास हुआ था उन सब को।

यह एक स्कूल की कहानी नहीं थी, कई राज्यों के बहुत सारे स्कूलों के बच्चे पहली बार अपनी मनपसंद चित्रों पर अपनी कहानियाँ लिख रहे थे और इतनी सारी नयी कहानियाँ बुनी जा रही थीं। इन हज़ारों बच्चों के शिक्षक ख़ुश हो रहे थे और दूर दिल्ली में बैठे हुए कुछ लोग जिन्होंने बड़ी मेहनत करके सिर्फ़ थोड़े ही समय में ५५ नयी किताबें तैयार की थीं, उन्हें स्कूलों तक पहुँचाया था और टीचर्स को प्रशिक्षित भी किया था।

अप्रैल २०१५ के पहले सप्ताह में प्रथम के दिल्ली वाले दफ़्तर में रुक्मिणी बैनर्जी के कमरे में उनके कुछ सहकर्मी और प्रथम बुक्स के कुछ कर्मी आपस में गहन विचार कर रहे थे कि अब की बार बच्चों को कैसी नयी पुस्तकें दी जाएं ताकि उनके पढ़ने-लिखने का शुरुआती सफ़र आसान और मज़ेदार हो पाए। प्रथम ने बहुत सालों बाद फिर से पुस्तकालयों को सुदृढ़ बनाने की सोची थी। रुक्मिणी चाहती थीं कि नया सत्र शुरू होने तक बच्चों के पास पढ़ने को और उन्हें शब्दों की और आकर्षित करने को कुछ अच्छी सामग्री पहुँच जाये। उन्होंने ही इस चक्र को गति दी और फिर उनके कहने पर न केवल प्रथम के लोग बल्कि प्रथम बुक्स के संपादक समूह के लोग एक जुट होकर उन किताबों को तैयार करने लग गए। कैसी किताबें? उनमें क्या होगा और किस प्रकार की होंगी यह सब तो तय ही हो रहा था। केवल इतना तय था की कम से कम ५० और हिन्दी भाषा में होंगी।

प्रथम बुक्स में मनीषा चौधरी और उनके सहकर्मी जुट गए अलग अलग प्रकार की कहानियाँ तय करने में और उन सब को ऐसे प्रारूपों में ढालने में कि बच्चों को पसंद भी आएं और उनको पढ़ने-लिखने की प्रक्रिया की ओर प्रेरित भी कर सके। पूरे अप्रैल और मई के महीनों में किताबें बनाने की प्रक्रिया चलती रही। प्रथम बुक्स ने कुछ ही समय पहले अपने नए नवेले स्टोरीवीवर प्लेटफार्म पर चित्रकारों के लिए एक प्रतियोगिता आयोजित की थी जिसमें ६५ से ज़्यादा चित्रकारों ने सिर्फ़ ६ चित्रों में अपनी अपनी कहानी भेजी थी। मनीषा और उनकी टीम को बिना शब्दों वाली पुस्तकें तैयार करने की सामग्री मिल गयी थी। उन्होंने २० ऐसे प्रारूप तैयार किये और साथ ही साथ ओडिशा की ४ जनजातीय भाषाओँ में तैयार की गयी किताबों में से भी कुछ को चुना गया। प्रथम समूह के साथ अनगिनत बैठकों में तैयार सामग्री पर चर्चा होती रही और फिर आख़िरकार एक एक करके किताबें चुनी जाने लगीं। फिर शुरू हुआ उनको डिज़ाइन करके हर तरह से प्रकाशन के योग्य बनाने का काम। यूँ तो इस काम के सभी चरणों को पार करने में कई  समय लग जाता है पर इस बार तो समय जैसे था ही नहीं। कड़ी मेहनत से सब ने मिलकर सभी किताबों को तैयार किया, उनको छपने भेजा और जून से पुस्तकें छप कर आनी शुरू हो गईं।

फिर शुरू हुआ उन्हें १० हज़ार से ज़्यादा स्कूलों तक किताबें उनकी ज़रुरत और बच्चों के पठन स्तर के अनुसार और प्रथम के कार्यक्रम के अनुसार! इतनी जगहों तक किताबें भेजने का काम बहुत बड़ा था और वेयरहाउस के लोगों ने दिन रात लगा कर लगभग एक महीने में किताबें वहाँ वहाँ पहुंचाईं जहाँ उनको पहुँचना था।

छुट्टियों से लौटे बच्चों को इतना बढ़िया तोहफ़ा मिलेगा, उनको उम्मीद भी नहीं थी। उनके शिक्षकों में से कुछ को और प्रथमके अपने लोगों को उन सब किताबों और कार्डों को बच्चों के साथ प्रयोग का प्रशिक्षण भी मिल चूका था। सब कुछ युद्ध स्तरपर किया गया था। तो क्या आश्चर्य की बात थी कि सभी इतने खुश थे! बच्चों ने उनका क्या इस्तेमाल किया और किस तरह इस सामग्री का असर पढ़ने-लिखने में हो रहा था, इस सबका अध्ययन भी किया जा रहा है। प्रथम की टीमें धीरे धीरे इस कार्यक्रम सभी पहलुओं पर अपना ध्यान केंद्रित कर रहे हैं।

स्कूलों में शिक्षक मज़े से बच्चों द्वारा लिखे, कहे जाने वाले अफ़सानों को पढ़-सुन कर ख़ुश हैं, लेकिन अभी भी इस नयी पठन सामग्री का क्या क्या असर हो रहा है, उसे समझने, परखने में समय लगेगा। उससे पहले ही प्रथम और प्रथम बुक्स एक और नया सेट तैयार करना चाहते हैं...देखिये क्या क्या तैयार होगा

जब बच्चों की कलम चली तो फिर चलती रही ! उत्तरप्रदेश के जैतपुर, प्रतिष्ठानपुर के प्राथमिक विद्यालयों की कक्षा २ व् ३ की छात्राओं की कहानियों की एक छवि।

(This post first appeared on the Pratham Books blog, here.)



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